गांधी : एक विचारधारा
सामान्य परिचय :-
2 अक्टूबर 1869 को पोरबंदर ( गुजरात ) में जन्में युग प्रवर्तक, समाजसुधारक मोहनदास करमचंद गांधी ने अपना व्यावसायिक जीवन 1891 में एक बैरिस्टर के रूप में किया | इंग्लैंड से शिक्षा पूर्ण कर वे 1893 में अफ्रीका गए जहां उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक अनुभव को प्राप्त किया |
अफ्रीका प्रवास के दौरान टॉल स्टॉय, जॉन रस्किन तथा हेनरी डेविड के ग्रंथों का अध्ययन किया परिणामस्वरूप सत्याग्रह व अहिंसा जैसे व्रतों को अपनाया किया |
गांधी का दर्शन
साधन एवं साध्य सिद्धांत :-
पश्चिमी विचारक मैकियावेली ने साध्य एवं साधन के संबंध के बीच ‘साध्य’ की श्रेष्ठता को महत्व देते हुए साधन को गोण माना, जबकि गांधीजी ने साध्य की प्राप्ति में साधन की पवित्रता पर अधिक बल दिया | गांधी ने साधनों की तुलना बीज से की तथा साध्य की तुलना पेड़ से की है, उनके अनुसार- “अगर हम अपने अच्छे लक्ष्य को प्राप्त करना चाहते हैं तो बुरे साधनों का उपयोग कदापि उचित नहीं |”
पूंजी बनाम श्रम (Trusteeship principle) :-
एक तरफ जहां काल मार्क्स पूंजीवादियों को सामाजिक शोषक के रूप में देखता है तथा उनके विनाश में ही सामाजिक कल्याण को खोजता है ( रक्त क्रांति )…. वहीं दूसरी तरफ गांधीजी पूंजी वादियों एवं सर्वहारा वर्ग दोनों को सामान्य महत्व देते हैं, गांधी का ऐसा मानना है कि पूंजीपतियों के हृदय परिवर्तन के द्वारा उन्हें यह दायित्व बोध कराया जा सकता है कि उनकी संपत्ति तथा धन समाज की धरोहर है, गांधी जी का यह सिद्धांत न्यायसीता का सिद्धांत कहलाता है |
औद्योगिक विकास बनाम मानव श्रम :-
गांधी का आर्थिक चिंतन किसी देश के विकास में औद्योगिकरण की अपेक्षा मानव श्रम के अधिकतम प्रयोग को स्वीकारता है | गांधी का मानना है कि एक मानव संसाधन संपन्न देश में मानव श्रम को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए, अतः बड़े मशीनी उद्योगों की अपेक्षा लघु तथा कुटीर उद्योग ज्यादा लाभकारी हो सकते हैं, इनके साथ ही स्वरोजगार की भावना का विकास भी देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देगा |
राजनीति एवं नैतिकता :-
गांधी जी का मानना है- जो राजनीति धर्म से विहीन है वह मृत्यु जाल से बद्ध है और आत्मा को पतन के गर्त में धकेलती है | इस प्रकार गांधीजी नीति शास्त्र को राजनीति शास्त्र तथा अर्थशास्त्र से ऊंचा स्थान देते हैं, उनकी दृष्टि में राजनीति वही तक उचित जहां तक वह नैतिकता की कसौटी पर खरी उतरती हो अन्यथा उससे किनारा कर लेना चाहिए | उनके अनुसार- राजनेताओं का नैतिक उत्तरदायित्व है कि वह अपने स्वार्थ से मुक्त होकर कर्तव्यनिष्ठा, सत्यनिष्ठा के साथ लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करें |
श्रम विभाजन के आधार पर वर्ण व्यवस्था को स्वीकारा |
एकाकी व्यवस्था बनाम ग्राम स्वराज :-
अंबेडकर ने जहां केंद्रीय शासन की महत्ता तथा इकहरी शासन प्रणाली को प्राथमिकता दी वहीं गांधी ग्राम स्वराज को अवधारणा को प्रतिपादित करते हैं |
गांधी का ग्राम स्वराज –
- गांधी के ग्राम स्वराज से तात्पर्य प्रत्येक ग्राम की आत्मनिर्भरता से है | गांधीजी केंद्र से लेकर ग्राम तक एक ही तंत्र का विरोध करते हैं |
- गांव में आवश्यक प्रत्येक वस्तु का उत्पादन गांव की सीमा में हो |
- गांव के अंदर सामाजिक आर्थिक तथा राजनीतिक मामलों का निपटारा गांव के ही चुने प्रतिनिधियों के द्वारा ही किया जाए |
गांधीजी के ग्राम स्वराज सिद्धांत का ही परिणाम पंचायती राज, निगम प्रणाली के रूप में दिखता है |
सत्याग्रह व अहिंसा :-
गांधी ने अपनी आत्मकथा “माय एक्सपीरियंस विथ ट्रुथ” मैं लिखा है कि -” मेरे निरंतर अनुभव में यह विश्वास दिला दिया है कि सत्य से अलग कोई ईश्वर नहीं… और सत्य की सिद्धि का एकमात्र उपाय अहिंसा है |’ अहिंसा की अखंड साधना से ही सत्य का पूर्ण साक्षात्कार प्राप्त किया जा सकता है |’ पश्चिम में ईसा मसीह ने सारे संसार को अहिंसा की शिक्षा दी इस आधार पर टाल स्टाय ने भी व्यक्तिगत त्याग को जीवन के दर्शन के रूप में स्वीकार किया गांधी का सत्याग्रह तथा अहिंसा का सिद्धांत इसी विचारधारा से प्रेरित दिखता है गांधी अहिंसा के सकारात्मक स्वरूप को स्थापित करते हैं जहां पाप कर्म एवं अनैतिकता के विरुद्ध पूर्णता अहिंसात्मक ढंग से अडिग रहते हुए विरोध करना सत्याग्रह माना गया है |
अतः गांधी के अनुसार अहिंसा वह सिद्धांत या नीति है जिसमें विरोधी को प्रेम से जीता जा सकता है घृणा-लड़ाई से नहीं…
गांधी बाइबल के इस वाक्य के अनुयायी हैं :- पाप से घृणा करो, पापी से नहीं
वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज की संकल्पना :-
भारतवासियों को सत्य व अहिंसा की शिक्षा देते हुए गांधी ने यह विचार रखा की अहिंसात्मक समाज में राज्य के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए क्योंकि राज्य की शांति और राज्य के कानून हिंसा या बल प्रयोग पर आधारित है | गांधीजी के अनुसार – राज्य व्यक्ति की स्वंत्रता का दमन कर के सब व्यक्तियों को एक ही सांचे में ढलने के लिए बाध्य करता है, यह स्वावलंबन की भावना को नष्ट करके उसके व्यक्तित्व को कुंठित कर देता है | परंतु फिर भी राज्य एक आवश्यक बुराई है | गांधीजी के आदर्श समाज में राजनीतिक शक्ति की कोई जरूरत नहीं है इस दृष्टि से गांधीजी टाल स्टाय के समान दार्शनिक अराजकतावादी या प्रशंसा अराजकतावादी कहलाते है |
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